श्री लक्ष्मी प्रपन्न जीयर स्वामी महाराज ने बच्चों के पालन-पोषण, संस्कार और जीवन मूल्यों पर दी महत्वपूर्ण शिक्षा

Report By: तारकेश्वर प्रसाद
आरा,भोजपुर : परमानपुर चातुर्मास्य व्रत स्थल पर भारत के महान मनीषी संत श्री लक्ष्मी प्रपन्न जीयर स्वामी महाराज ने बच्चों के पालन-पोषण, शिक्षा और जीवन मूल्यों पर विस्तृत मार्गदर्शन दिया। उन्होंने कहा कि माता-पिता को अपने बच्चों को अलग-अलग आयु वर्गों में सही शिक्षा और संस्कार प्रदान करना चाहिए। 5 वर्ष तक अनुशासन, 5 से 10 वर्ष के बीच संस्कार, 10 से 20 वर्ष तक शिक्षोपार्जन और 25 वर्ष के बाद मित्रवत व्यवहार बनाए रखना आवश्यक है। सामान्य सामाजिक स्थिति में, जब बच्चों की आयु 30-35 वर्ष तक हो जाए, तब भी माता-पिता को अपने बच्चों के साथ समानुभूति और मित्रवत व्यवहार बनाए रखना चाहिए।
स्वामी जी ने माता-पिता से यह भी कहा कि अक्सर बच्चे माता-पिता के अत्यधिक प्यार और भावुकता में बंधकर स्वतंत्रता और अनुभव से वंचित रह जाते हैं। उन्होंने स्पष्ट किया कि 12-15 वर्ष की आयु के बच्चों को शिक्षा ग्रहण करने और सामाजिक अनुभव लेने के लिए बाहर भेजना आवश्यक है। 18 वर्ष की आयु के बाद बच्चों को स्वतंत्र रूप से निर्णय लेने, शिक्षा ग्रहण करने और समाज की कठिनाइयों का सामना करने देना चाहिए, जिससे उनका आत्मविश्वास और मानसिक बल मजबूत हो। माता-पिता को अपने बच्चों को प्यार के बंधन में नहीं बांधना चाहिए, बल्कि उन्हें अपने पैरों पर खड़ा होने के लिए प्रेरित करना चाहिए।
स्वामी जी ने श्रीमद् भागवत प्रसंग का हवाला देते हुए ऋषभदेव के पुत्र भरत जी की कथाओं पर प्रकाश डाला। उन्होंने बताया कि ऋषभदेव ने अपने सबसे प्रिय पुत्र भरत को राजगद्दी पर बैठाया और चार अन्य पुत्रों को अलग-अलग राज्यों का शासन सौंपकर स्वयं पुलह आश्रम में तपस्या करने चले गए। भरत जी का जीवन चरित्र भक्तिमय और प्रेरक था। उन्होंने सोनपुर, बलिया, गुरुग्राम और वराह क्षेत्र को बैकुंठ लोक के समान बताया।
कथा के अनुसार, पुलह आश्रम में भरत जी ने एक हिरणी के नौ बच्चों को संरक्षण दिया और उन्हें अपने बच्चों की तरह स्नेह प्रदान किया। इस दौरान उन्होंने पूजा और संध्या पाठ में बदलाव किया, जिससे उनके जीवन में संतुलन और करुणा का संदेश सामने आया। स्वामी जी ने कहा कि यह कथा बच्चों और युवाओं को सिखाती है कि स्नेह, अनुशासन और जिम्मेदारी का संतुलन जीवन में आवश्यक है।
स्वामी जी ने भरत जी के पुनर्जन्म की कथा भी साझा की। पहले भरत जी मृग रूप में, फिर ब्राह्मण अंगीरा कुल में जन्म लिए। उन्होंने अपने जीवन के अनुभवों और कठिनाइयों से शिक्षा प्राप्त की और अपने कर्मों के महत्व को समझा। स्वामी जी ने इस कथा के माध्यम से स्पष्ट किया कि व्यक्ति को अपने पिछले कर्मों और इतिहास को याद रखना चाहिए, जिससे जीवन में अभिमान से बचा जा सके और आत्मज्ञान प्राप्त हो।
स्वामी जी ने बलि और हिंसा की प्रथाओं के खिलाफ चेतावनी दी और कहा कि सभी जीव भगवान श्रीमन नारायण के अंश हैं। किसी भी जीव की हत्या या बलि करने से देवी-देवता प्रसन्न नहीं होते, बल्कि इसका प्रतिकूल प्रभाव बलिदान करने वाले पर पड़ता है। उन्होंने जीवन और मृत्यु के रहस्य को समझने की आवश्यकता पर बल दिया। स्वामी जी ने कहा कि व्यक्ति को मृत्यु और जीवन के अद्भुत रहस्य का एहसास होना चाहिए। जब किसी जीव की हत्या या बलि की जाती है, तो अपने स्वरूप और जीवन की वास्तविकता को भी समझना चाहिए।
इस अवसर पर स्वामी जी ने यह सिखाया कि बच्चों को संस्कार, शिक्षा और स्वतंत्रता के साथ जीवन का अनुभव देना आवश्यक है। माता-पिता को अपने बच्चों को जिम्मेदार बनाना चाहिए, ताकि वे समाज में सही मार्ग पर चल सकें और अपने जीवन में नई ऊंचाइयों को प्राप्त कर सकें। उन्होंने जीवन, धर्म और करुणा के मूल्यों का पालन करने के लिए उपस्थित सभी भक्तों को प्रेरित किया।