मानवजनित प्रदूषण: सभ्यता को विनाश की ओर ले जाती मौन आपदा

डा. विजय श्रीवास्तव एवं कोमल
आपदाओं को कुदरती कह कर पल्ला झाड़ लेना प्रकृति का अपमान है , वास्तविकता तो ये है कि ये आपदाएं मानव जनित है और इसकी नीवं लालच आधारित विकास मॉडल पहले से ही रख देते हैं | हम एक राष्ट्र के तौर पर न त आपदाओं को रोकने में और न ही उनका प्रबंधन करने में सफल हुए हैं | आपदाओं का प्रदूषण से गहरा सम्बन्ध भी है , जिस तरह से विकास जनित परियोजनाएं गंभीर स्वास्थ्य संकट पैदा कर रही हैं उससे सम्पूर्ण मानव जाति पर ही संकट पैदा हो गया है | विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रपट के अनुसार हर साल दुनियाभर में 70 लाख से ज्यादा मौतें प्रदूषण के कारण होती हैं। यह दावा करता है कि वायु प्रदूषण सबसे अधिक स्वास्थ्य प्रभावित करने वाला फैक्टर है और एक नवीन शोध ये भी बताता है कि भारत में प्रतिवर्ष 81000 व्यक्ति फेफड़ों के कैंसर के शिकार हो रहे हैं और ये स्थिति और भयावह हो जाती है जबकि हेल्थ इफेक्ट्स इंस्टीट्यूट की रिपोर्ट के अनुसार, 2021 में वायु प्रदूषण से भारत में 21 लाख लोगों की मौत हो गई। एक अन्य अध्ययन के अनुसार 2019 में भारत में लगभग 1.5 मिलियन (15 लाख) मौतें पीएम2.5 वायु प्रदूषण से संबंधित थीं। विश्व स्तर पर भी वायु प्रदूषण एक बड़ी समस्या है, जिसमें 2021 में लगभग 8.1 मिलियन मौतें वायु प्रदूषण के कारण हुईं, जिनमें भारत और चीन सबसे ज़्यादा प्रभावित देश थे। ये हवा में घुला हुआ विष प्राकृतिक नहीं मानव जनित है | एक बात और गौर करने योग्य है कि वायु प्रदूषण और अन्य प्रकार के प्रदूषण अमीरों की अपेक्षा गरीबों को अधिक नुकसान पहुंचाते हैं | खतरनाक उद्योगों में काम करने वाले मजदूर साँस की गंभीर बीमारियों से संक्रमित रहते हैं | स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय की पूर्व केंद्रीय सचिव के. सुजाता राव कहती हैं कि बेशक, हवा सभी के लिए समान रूप से वितरित की जाती है – अमीर और गरीब, युवा और बूढ़े – हम सभी एक ही हवा में साँस लेते हैं। लेकिन इसका प्रभाव गरीब लोगों पर असमान रूप से पड़ता है। जो लोग निर्माण उद्योग में काम करते हैं, जो लोग प्रदूषण फैलाने वाले कारखानों में काम करते हैं, जो लोग अस्वास्थ्यकर वातावरण में काम करते हैं – ये वे लोग हैं जिनका स्वास्थ्य खराब वायु गुणवत्ता से कहीं अधिक प्रभावित होता है। वे पोषण संबंधी और प्रतिरक्षा संबंधी रूप से भी कमजोर हो सकते हैं। मृत्यु एक पहलू है, लेकिन लंबी रुग्णता भी उनकी कमाई को प्रभावित करती है, क्योंकि न केवल वे काम के मामले में उत्पादकता खो देते हैं, बल्कि वे स्वास्थ्य सेवा पर भी पैसा खर्च करते हैं, जब तक कि वे सरकारी अस्पतालों में न जाएँ। तो, वायु प्रदूषण के इस प्रकार के सामाजिक और आर्थिक प्रभाव हैं। यह काफी विनाशकारी है।
न केवल वायु प्रदूषण अपितु दूषित जल पीने से भारत की एक बड़ी आबादी असमय काल के गाल में समा गई | विभिन्न अध्धयन बताते हैं कि भारत में जल प्रदूषण के कारण हैजा, टाइफाइड, हेपेटाइटिस और तीव्र दस्त जैसे जलजनित रोग बड़ी संख्या में फैलते हैं, जिससे कई लोगों की मृत्यु हो जाती है. औद्योगिक अपशिष्ट, अनुपचारित सीवेज और कृषि रसायन जल को दूषित करते हैं, जो पाचन संबंधी समस्याओं से लेकर यकृत और गुर्दे की क्षति जैसी दीर्घकालिक बीमारियों को जन्म देते हैं. हर साल लाखों भारतीय जलजनित बीमारियों से प्रभावित होते हैं, जिसके कारण 1.5 करोड़ बच्चों की मौत दस्त से होती है और विभिन्न बीमारियों से 10,000 से अधिक लोगों की मृत्यु होती है|
ध्वनि प्रदूषण का भी मानव स्वास्थ्य पर गंभीर प्रतिकूल पड़ता है और ये भी तथ्य भी भयावह स्थिति की और इशारा करते हैं | अध्ययन बताते हैं कि 55 डीबी से अधिक ध्वनि वाले ध्वनि प्रदूषण के लगातार संपर्क में रहने से उच्च रक्तचाप, सुनने की समस्या, दीर्घकालिक तनाव, नींद संबंधी विकार और हृदय संबंधी बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है। वास्तव में, भारी वाहनों के आवागमन वाली सड़कों पर यातायात के शोर से ऑक्सीडेटिव तनाव और कोर्टिसोल के स्राव के कारण हृदयाघात का खतरा 8% तक बढ़ जाता है, जिससे रक्तचाप बढ़ जाता है। इसी तरह, रात में 40 डीबी से ज़्यादा के पर्यावरणीय शोर के संपर्क में आने पर आरामदायक नींद की कमी नींद की गुणवत्ता को प्रभावित करती है और मधुमेह , मोटापा और अवसाद के विकास से जुड़ी होती है । वास्तव में, लगातार शहरी शोर चिंता विकारों के जोखिम को 25% तक बढ़ा देता है ।
अब सवाल ये उठता है कि जब प्रदूषण इतनी भयावह मानव जनित त्रासदी है जो कि इस धरा के साथ ही मानव सभ्यता को भी विनाश की और धकेल रही है तो इसके प्रति लोगों और सरकारों की उदासीनता क्यों है ? वास्तव में पर्यावरण को बचाने के लिए होने वाले सारे वैश्विक कार्यक्रम केवल दिखावा हैं और उनमें राजनीतिक और वैयक्तिक इच्छा शक्ति की कमी है | लोगों को अब तो चेत जाना चाहिए जबकि युवा और बच्चे भी असमय मृत्यु के पाश में फँस रहे हैं | भोग आधारित जीवन शैली और विनाशकारी विषाक्त भोजन का त्याग करना चाहिए , प्रकृति की ओर लौटना चाहिए | सरकारें पर्यावरणीय नीतियां बनाने तक में इतनी उदासीन हैं कि उन्हें लोगों की जान से क्या मतलब | प्रदूषण वोट आधारित मुद्दा नहीं है इसीलिये इसके प्रति राजनीतिक दल भी कोई रूचि नहीं दिखाते | आवश्यकता लोगों में पर्यावरण के प्रति चेतना जाग्रत करने और उन्हें स्वंय को इस आपदा से बचाने की है |
