नीतीश कुमार बिहार की राजनीति का चाणक्य और सत्ता संतुलन का शिल्पी।

Report By : तारकेश्वर प्रसाद
जब नीतीश कुमार अपने राजनीतिक जीवन के उत्कर्ष पर थे, तब उन्होंने अपने विरोधियों को ऐसे मात दी कि उनमें से अधिकांश दुबारा राजनीति में उठकर खड़े भी नहीं हो सके। एक वैद्य के पुत्र के रूप में बचपन में जो बालक आयुर्वेदिक दवाइयों की पुड़िया बाँधता था, उसने राजनीति में ऐसा “होम्योपैथिक ट्रीटमेंट” ईजाद किया कि बड़े-बड़े बाहुबली और धनपशु या तो शरणागत हो गए या फिर राजनीतिक जीवन में अप्रासंगिक बनकर रह गए।
नीतीश कुमार ने अपने समय में न जाने कितनों की “पगड़ी उतरवाई”, न जाने कितनों को “डगरा पर का बैगन” बनाकर छोड़ दिया। उनका राजनीतिक कौशल इतना बारीक और तीखा रहा है कि विरोधी उन्हें कभी ठीक से समझ ही नहीं पाए। जब देश में एक नेता की प्रचंड लहर और सुनामी चल रही थी, तब भी वह नेता बिहार में मुख्यमंत्री पद तक नहीं पहुँच पाया। दूसरी ओर जब केंद्र की संस्थाएं—ईडी, सीबीआई—का इस्तेमाल कर दूसरे दलों के सांसदों और विधायकों को तोड़ने का “खुला खेल फर्रुखाबादी” खेला जा रहा था, तब भी नीतीश कुमार का एक विधायक क्या, एक वार्ड पार्षद तक नहीं तोड़ा जा सका।
वे दो महान नेताओं—जननायक कर्पूरी ठाकुर और पूर्व प्रधानमंत्री वी. पी. सिंह—के साथ निकटता से जुड़े रहे। उनके भीतर सामाजिक न्याय की वही ज्वाला है जो कर्पूरी ठाकुर में थी, और सत्ता के प्रति वही संतुलनप्रियता जो वी. पी. सिंह में थी। आज नीतीश कुमार के पास दो दशक का प्रशासनिक अनुभव, सामाजिक समरसता का विजन और सत्ता के गलियारों का पूर्ण ज्ञान है।
यह विडंबना है कि 20 वर्षों तक शासन करने वाले इस नेता के खिलाफ आज जो एकमात्र मुद्दा शेष है, वह है उम्र। उम्र एक स्वाभाविक सत्य है, जिस पर न किसी नेता का वश होता है और न किसी समर्थक का। लेकिन अगर उम्र को नजरअंदाज कर दिया जाए, तो नीतीश कुमार के समकक्ष आज भी बिहार में कोई दूसरा “माई का लाल” नहीं है। यही बिहार का सौभाग्य भी है और दुर्भाग्य भी।
जो लोग आज नीतीश कुमार को सार्वजनिक रूप से या भीतर ही भीतर कोसते हैं, उनमें से बहुतों को आने वाले वर्षों में अपने रुख पर पछताना पड़ेगा। कोई उन्हें भारत रत्न देने की माँग करेगा तो कोई अपने पोस्टरों में उनकी तस्वीर लगाएगा। क्योंकि इतिहास हर उस नेता को याद करता है जिसने सत्ता नहीं, समाज की परवाह की हो।
2025 के विधानसभा चुनाव को केवल एक राजनीतिक युद्ध न मानकर, पुराने राजनीतिक योद्धाओं और बिहार के भविष्य के बीच का संघर्ष माना जाना चाहिए। क्योंकि जिन नेताओं को नीतीश कुमार ने कभी राजनीति का पाठ पढ़ाया था, आज वही “फूंके हुए कारतूस” उनके खिलाफ अपने जीवन का आखिरी दांव खेलना चाह रहे हैं।
यह चुनाव नीतीश कुमार के लिए नहीं, बल्कि उस बिहार के लिए निर्णायक साबित होगा, जो सामाजिक न्याय, राजनीतिक स्थिरता और विकास के पथ पर बढ़ना चाहता है।