हिंदी की प्रतिष्ठा: जब आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने एक झटके में छोड़ दिया था अलवर रियासत के हिंदी सचिव का पद

Report By: स्पेशल डेस्क

हिंदी साहित्य के इतिहास में आचार्य रामचंद्र शुक्ल का नाम अत्यंत आदर और श्रद्धा से लिया जाता है। उन्होंने न केवल हिंदी आलोचना को एक ठोस आधार दिया, बल्कि हिंदी भाषा और उसकी गरिमा के लिए कई बार ऐसे कदम उठाए, जो आज भी प्रेरणा का स्रोत हैं। एक ऐसा ही प्रसंग है अलवर रियासत का, जब उन्होंने मात्र एक अपमानजनक टिप्पणी पर हिंदी सचिव का पद छोड़ दिया था। यह घटना न केवल उनके स्वाभिमान की मिसाल है, बल्कि हिंदी की प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए उठाया गया एक ऐतिहासिक कदम भी।

अलवर रियासत में नियुक्ति
बीसवीं सदी के प्रारंभिक दशकों में आचार्य शुक्ल को अलवर रियासत में ‘हिंदी सचिव’ के पद पर नियुक्त किया गया था। यह नियुक्ति हिंदी भाषा को संस्थागत पहचान देने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम थी। अलवर रियासत, जो आज के राजस्थान राज्य का हिस्सा है, उस समय शिक्षा, भाषा और संस्कृति के क्षेत्र में एक उभरती हुई सत्ता थी। आचार्य शुक्ल से अपेक्षा की गई थी कि वे रियासत की हिंदी नीति को मजबूती से दिशा देंगे।

हिंदी के अपमान पर दिया करारा जवाब
हालाँकि, यह सुखद अध्याय अधिक समय तक नहीं चला। एक दिन रियासत के किसी अंग्रेज अधिकारी ने, संभवतः मानसिक औपनिवेशिकता से ग्रस्त होकर, हिंदी भाषा को “अशिष्ट और गंवारू” कहने का दुस्साहस किया। यह टिप्पणी न केवल भाषा पर प्रहार थी, बल्कि उस समस्त सांस्कृतिक चेतना पर आघात थी, जिसका प्रतिनिधित्व आचार्य शुक्ल करते थे।

आचार्य शुक्ल ने इस अपमान को व्यक्तिगत नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और भाषाई आत्मसम्मान का विषय माना। उन्होंने तुरंत निर्णय लिया और बिना किसी हिचकिचाहट के अलवर रियासत के हिंदी सचिव पद से त्यागपत्र दे दिया। यह निर्णय न केवल उनके आत्मसम्मान की मिसाल बना, बल्कि हिंदी भाषियों के भीतर भी एक नई चेतना का संचार किया।

एक विचारक की दृढ़ता
इस घटना ने आचार्य शुक्ल के व्यक्तित्व की दो अहम विशेषताएँ उजागर कीं — पहला, उनका अडिग आत्मसम्मान और दूसरा, हिंदी भाषा के प्रति उनका अपार प्रेम। उस समय, जब अंग्रेजी को बौद्धिकता की पहचान माना जाता था, शुक्लजी ने यह स्पष्ट कर दिया कि हिंदी भी उतनी ही समृद्ध, सक्षम और गरिमामयी भाषा है।

प्रभाव और प्रेरणा
इस ऐतिहासिक निर्णय ने समकालीन हिंदी लेखकों, बुद्धिजीवियों और शिक्षकों को यह संदेश दिया कि भाषा केवल संवाद का माध्यम नहीं, बल्कि सांस्कृतिक अस्मिता की नींव है। आचार्य शुक्ल के इस कदम ने हिंदी को एक नयी वैचारिक शक्ति दी और भाषा की गरिमा के लिए संघर्ष करने की प्रेरणा दी।

आज के संदर्भ में प्रासंगिकता
आज जब हिंदी को वैश्विक मंच पर स्थान दिलाने के प्रयास हो रहे हैं, तब आचार्य रामचंद्र शुक्ल की यह घटना और भी प्रासंगिक हो जाती है। यह हमें यह सिखाती है कि भाषा की प्रतिष्ठा केवल सरकारी नीतियों से नहीं, बल्कि उन व्यक्तियों से बनती है जो उसके लिए त्याग करने को तत्पर रहते हैं।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल का अलवर रियासत से त्यागपत्र देना केवल एक व्यक्तिगत निर्णय नहीं था, बल्कि यह एक भाषायी आंदोलन की चिंगारी थी। यह घटना हिंदी भाषा की प्रतिष्ठा के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में दर्ज है। उनके साहसिक निर्णय ने यह स्पष्ट कर दिया कि हिंदी केवल बोलचाल की भाषा नहीं, बल्कि अस्मिता, स्वाभिमान और संस्कृति की भाषा है।

 

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