परमानपुर चातुर्मास व्रत स्थल पर संत श्री लक्ष्मी प्रपन्न जीयर स्वामी जी का आध्यात्मिक प्रवचन

रिपोर्ट: तारकेश्वर प्रसाद, आरा (बिहार)

बिहार: परमानपुर स्थित चातुर्मास व्रत स्थल पर चल रहे धार्मिक आयोजन के अंतर्गत संत श्री लक्ष्मी प्रपन्न जीयर स्वामी जी महाराज ने सोमवार को दिए गए अपने दिव्य प्रवचन में सन्यास परंपरा की गूढ़ व्याख्या करते हुए श्रद्धालुओं को आत्मज्ञान से भर दिया। स्वामी जी ने सन्यास की परंपरा, उसके प्रकार और नियमों के साथ ही पवित्रता, त्याग और तपस्या का महत्व बताया।

अपने प्रवचन की शुरुआत करते हुए स्वामी जी ने सन्यास के चार प्रकारों — कुटीचक, बहुदक, हंस और परमहंस — की विस्तृत जानकारी दी। उन्होंने बताया कि:

कुटीचक सन्यासी वह होता है, जो गृहस्थ जीवन त्यागकर तपस्या का मार्ग अपनाता है। वह त्रिदंड, कमंडल और खड़ाऊं धारण कर साधना करता है, लेकिन यदि कोई केवल विवाह और पारिवारिक कर्तव्य निभाकर सन्यास ले ले, तो वह इस श्रेणी में नहीं आता।

बहुदक सन्यासी वह होता है, जो पूरे विधि-विधान से, जीवन के सभी सांसारिक कर्तव्यों को पूरा करने के बाद ही सन्यास लेता है। ऐसे सन्यासी समाज और धर्म की मर्यादा का पालन करते हुए भिक्षा पर जीवन यापन करते हैं।

हंस सन्यासी का जीवन अत्यंत पवित्र होता है। वह बचपन से ब्रह्मचर्य का पालन करता है और वैवाहिक जीवन से पूरी तरह अछूता रहता है। वह भगवद भक्ति और वेद-वेदांत के प्रचार में जीवन अर्पित करता है।

परमहंस सन्यासी, जो सन्यास की सबसे उच्च अवस्था मानी जाती है, वह समस्त सांसारिक बंधनों से मुक्त होकर केवल भगवान श्रीमन नारायण में लीन रहता है। स्वामी जी ने त्रिदंडी स्वामी जी महाराज का उदाहरण देते हुए कहा कि उन्होंने जीवन भर न स्त्री को स्पर्श किया और न ही धन को छुआ। उनका संपूर्ण जीवन ईश्वरचिंतन और तपस्या में बीता।

स्वामी जी ने यह भी स्पष्ट किया कि केवल गेरुआ वस्त्र पहन लेने से कोई सन्यासी नहीं बन जाता। एक सच्चे सन्यासी को नियमों का कड़ाई से पालन करना होता है। उन्हें भिक्षा के लिए एक, तीन, पांच या अधिकतम सात घरों से ही भोजन ग्रहण करना चाहिए। भोग-विलास से दूर रहकर तप, त्याग और सेवा में जीवन बिताना ही एक सच्चे सन्यासी का लक्षण है।

अपने प्रवचन को आगे बढ़ाते हुए स्वामी जी ने श्री शुकदेव जी महाराज की जन्म कथा का उल्लेख किया, जिसने उपस्थित श्रद्धालुओं को भावविभोर कर दिया। उन्होंने बताया कि शुकदेव जी जन्म लेते ही संसार के मोह-माया से दूर हो गए और घर त्यागकर निकल पड़े। उनके पिता, महर्षि वेदव्यास, उनके पीछे-पीछे यह कहते हुए दौड़ते रहे— “बेटा रुक जाओ, विवाह कर लो, नाती-पोते हो जाएं, फिर सन्यास ले लेना।” लेकिन शुकदेव जी नहीं रुके।

रास्ते में जब वे एक सरोवर से गुजर रहे थे, तो कुछ ऋषियों की पत्नियां वहां स्नान कर रही थीं। शुकदेव जी को देखकर वे लज्जित नहीं हुईं, जबकि व्यास जी के आने पर वे तुरंत पानी में छुप गईं। जब व्यास जी ने इसका कारण पूछा, तो स्त्रियों ने उत्तर दिया— “आप संबंधों में बंधे हुए हैं — पिता, दादा, चाचा के रूप में। इसलिए मर्यादा आवश्यक है। लेकिन शुकदेव जी तो केवल आत्मा हैं, उनमें शरीर की पहचान नहीं है।”

इस कथा से यह संदेश मिलता है कि जब कोई आत्मा परम ज्ञान को प्राप्त कर लेता है, तो वह संसार के बंधनों से पूरी तरह मुक्त हो जाता है।

श्रद्धालुओं को चातुर्मास स्थल तक पहुंचने में किसी प्रकार की कठिनाई न हो, इसके लिए आयोजन समिति द्वारा मुख्य सड़क से स्थल तक एक नई सड़क का निर्माण कराया जा रहा है। यह कार्य तेजी से प्रगति पर है और श्रद्धालुओं के लिए सुविधाजनक पहुंच सुनिश्चित करेगा।

प्रवचन के अंत में स्वामी जी ने सभी भक्तों से नियमों का पालन करते हुए जीवन को साधना और सेवा के मार्ग पर चलाने का आह्वान किया। उन्होंने कहा कि धर्म, अध्यात्म और ज्ञान का मार्ग कठिन अवश्य है, लेकिन इसी में मानव जीवन की पूर्णता निहित है।

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