प्रशासनिक सक्रियता बनाम विकास के प्रति उदासीनता कब जागेगा सिस्टम

रिपोर्ट: तारकेश्वर प्रसाद, आरा (बिहार)

इन दिनों बिहार की सड़कों पर, गांवों के गलियारों में और पंचायत भवनों के प्रांगण में एक खास हलचल दिखाई दे रही है। हर तरफ प्रशासनिक अधिकारियों की चहलकदमी है — कोई मतदान केंद्र की जांच कर रहा है, तो कोई मतदाता सूची में नाम जुड़वाने के लिए घर-घर दस्तक दे रहा है। ऐसा माहौल पहले कभी-कभार ही देखने को मिलता था, लेकिन इस बार चुनावी प्रक्रिया को लेकर प्रशासन जिस तरह से सक्रिय है, वह सराहनीय जरूर है — लेकिन एक अहम सवाल को भी जन्म देता है:

जिला पदाधिकारी से लेकर बीडीओ और पंचायत सचिव तक  इन दिनों सभी अधिकारी अपने-अपने क्षेत्र में बेहद सतर्क और मुस्तैद नजर आ रहे हैं। मतदाता सूची का पुनरीक्षण, बूथ सत्यापन, नए मतदाताओं का नामांकन, मृतकों के नाम हटाना  यह सब कुछ इतनी तेजी और पारदर्शिता से किया जा रहा है कि देखकर लगेगा जैसे बिहार प्रशासन पूरी तरह जाग चुका है।

सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर इन दौरों की तस्वीरें, प्रेस नोट्स और विडियो तेजी से वायरल हो रहे हैं। अखबारों में अधिकारियों की सक्रियता की तस्वीरें प्रमुखता से छप रही हैं। लेकिन जब हम इस जागरूकता और तत्परता को विकास के पैमाने पर आंकते हैं, तो नजारा बिल्कुल बदल जाता है।

अगर बिहार की किसी ग्रामीण सड़क पर आप निकलें, तो उखड़े हुए रास्ते, कीचड़ से भरे गड्ढे और धूल उड़ाती हवा आपका स्वागत करेंगे। स्वास्थ्य उपकेंद्रों में न तो डॉक्टर मिलते हैं और न ही दवाएं। स्कूलों में शिक्षक अनुपस्थित हैं, और जहां शिक्षक हैं, वहां बच्चे नहीं।
रोजगार की तलाश में हजारों युवा आज भी पलायन कर रहे हैं।

तो सवाल उठता है:
जो अधिकारी वार्ड स्तर तक जाकर वोटर लिस्ट चेक कर रहे हैं, क्या वे कभी यह भी देखने गए हैं कि उस गांव के बच्चों को स्कूल में मिड-डे मील मिल रहा है या नहीं? क्या पीने का पानी वहां उपलब्ध है? क्या कोई सरकारी योजना सही तरीके से लागू हो रही है?

कोई यह नहीं कह रहा कि मतदाता सूची की सफाई जरूरी नहीं है। लोकतंत्र की नींव ही पारदर्शिता पर टिकी होती है, और मतदान प्रक्रिया को निष्पक्ष बनाना एक जिम्मेदार प्रशासन का दायित्व है। लेकिन क्या केवल चुनाव ही प्रशासन की सक्रियता को जगाता है?

क्या पंचायत भवन केवल वोट के समय सजाए जाते हैं? क्या अधिकारी केवल वोट की गिनती में रुचि रखते हैं, वोटरों की जरूरतों में नहीं?

चुनाव एक प्रक्रिया है, जो कुछ समय के अंतराल पर आती है। लेकिन विकास  शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, रोजगार  यह सब तो हर दिन की मांग है। फिर इन जरूरी पहलुओं पर उतनी तत्परता क्यों नहीं दिखाई देती?

प्रशासनिक मशीनरी का काम केवल चुनाव कराना नहीं है, बल्कि हर नागरिक को उसके मूल अधिकार दिलाना भी है। यदि अफसरशाही की यही ऊर्जा और कार्यशैली साल भर बनी रहे, तो बिहार में विकास की तस्वीर काफी हद तक बदल सकती है।

लेकिन विडंबना यह है कि अधिकांश सरकारी योजनाओं की जमीनी हकीकत आज भी कागजों तक ही सीमित है। योजनाएं तो बनती हैं, फंड भी आता है, लेकिन उनका सही इस्तेमाल नहीं हो पाता। निगरानी नहीं होती, जवाबदेही नहीं तय होती।

यह भी उतना ही जरूरी है कि आम नागरिक सिर्फ मतदान के दिन ही जागरूक न हों। उन्हें प्रशासन से सवाल पूछना होगा, विकास कार्यों की मॉनिटरिंग करनी होगी, पंचायत बैठकों में भाग लेना होगा और सरकारी योजनाओं के क्रियान्वयन में अपनी भूमिका निभानी होगी।

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