बिहार चुनाव 2025 राजनीति के नए समीकरण और जनता की नई प्राथमिकताएं

बिहार की राजनीति हमेशा से पूरे देश में गहन बहस का विषय रही है और 2025 का चुनाव भी इसी परंपरा को आगे बढ़ा रहा है। यह चुनाव केवल सत्ता परिवर्तन का सवाल नहीं है, बल्कि यह राज्य की सामाजिक संरचना, बदलते रुझान और विकास की दिशा को समझने का प्रतीक है। बिहार का राजनीतिक इतिहास लंबे समय तक जातिगत समीकरणों और सामाजिक न्याय की राजनीति से संचालित होता रहा है, लेकिन समय के साथ परिस्थितियां बदल रही हैं। मंडल आयोग के बाद क्षेत्रीय दलों ने मजबूत पकड़ बनाई, मगर अब बदलते आर्थिक और सामाजिक हालात में मतदाताओं की सोच भी रूपांतरित होती दिख रही है।
वर्तमान चुनावी परिदृश्य इस बदलाव को और स्पष्ट करता है। सत्ताधारी दल अपनी विकास योजनाओं और कानून-व्यवस्था की उपलब्धियों को गिनाकर जनता से समर्थन मांग रहे हैं, वहीं विपक्ष बेरोजगारी, महंगाई और शिक्षा-स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी को मुद्दा बना रहा है। नई राजनीतिक पार्टियां और चेहरे भी सक्रिय हैं, जो खासकर शहरी मतदाताओं और युवाओं को आकर्षित करने की कोशिश कर रहे हैं। रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य और बुनियादी ढांचे का विकास इस बार के चुनाव के केंद्र में है। युवाओं की बढ़ती संख्या और उनकी बदलती प्राथमिकताएं इस चुनाव को और महत्वपूर्ण बना रही हैं। वे केवल जातिगत पहचान पर आधारित राजनीति से आगे बढ़कर अवसर और विकास की दिशा में सोच रहे हैं।
मतदाताओं की यह नई सोच बिहार की राजनीति में निर्णायक मोड़ साबित हो सकती है। जहां पहले जाति और सामाजिक समीकरण ही चुनावी परिणाम तय करते थे, वहीं अब विकास, अवसर और बेहतर भविष्य की आकांक्षा को अधिक महत्व दिया जा रहा है। इस बदलते रुझान से साफ है कि बिहार की जनता केवल सत्ता परिवर्तन नहीं चाहती, बल्कि राज्य को एक नई दिशा देना चाहती है। इसलिए 2025 का चुनाव इस मायने में ऐतिहासिक हो सकता है कि यह न केवल नेताओं की रणनीति बल्कि जनता की प्राथमिकताओं और अपेक्षाओं को भी बदल देगा।
पिछले दो विधानसभा चुनावों पर नजर डालें तो यह स्पष्ट होता है कि बिहार की राजनीति ने कई उतार-चढ़ाव देखे हैं। 2015 में महागठबंधन (आरजेडी-जेडीयू-कांग्रेस) ने भाजपा को मात दी थी और सामाजिक समीकरणों ने निर्णायक भूमिका निभाई थी। वहीं 2020 में भाजपा-जेडीयू गठबंधन ने कठिन मुकाबले के बाद सरकार बनाई, लेकिन जेडीयू की सीटें 43 तक सिमट गईं, जो नीतीश कुमार के घटते जनाधार को दर्शाता है। इसके बावजूद नीतीश कुमार ने गठबंधन की राजनीति और अपनी ‘सुशासन बाबू’ की छवि के बल पर मुख्यमंत्री पद संभाला। उनका राजनीतिक सफर यह दिखाता है कि वे बिहार की राजनीति में संतुलन बनाने वाले नेता रहे हैं, हालांकि युवाओं में उनके प्रति आकर्षण पहले जैसा नहीं रहा।
यह चुनाव केवल बिहार तक सीमित नहीं है, बल्कि इसका असर 2029 के आम चुनाव की राजनीति पर भी पड़ेगा। अगर यहां विकास और रोजगार के मुद्दे जातिगत राजनीति पर भारी पड़ते हैं तो यह संदेश राष्ट्रीय स्तर पर भी जाएगा। सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (CSDS) के चुनाव सर्वेक्षणों में बार-बार यह बात सामने आई है कि बिहार की जनता बदलाव चाहती है। नीतीश कुमार खुद कह चुके हैं कि “बिहार की राजनीति हमेशा देश के लिए दिशा तय करती है।” इस चुनाव में विपक्ष जहां ईवीएम पर सवाल उठाते हुए “वोट चोर” जैसे नारे दे रहा है, वहीं भाषायी मर्यादा का अभाव और गाली-गलौज की भाषा राजनीति को और प्रदूषित कर रही है। पुरानी जातिगत राजनीति और ध्रुवीकरण को तोड़ने के लिए बिहार का चुनाव एक आदर्श भी प्रस्तुत कर सकता है, बशर्ते यह जनादेश विकास और सामाजिक सौहार्द की ओर अग्रसर हो।

कोमल एवं डॉ. विजय श्रीवास्तव : लेखक एक प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर है…

Mukesh Kumar

मुकेश कुमार पिछले 3 वर्ष से पत्रकारिता कर रहे है, इन्होंने सर्वप्रथम हिन्दी दैनिक समाचार पत्र सशक्त प्रदेश, साधना एमपी/सीजी टीवी मीडिया में संवाददाता के पद पर कार्य किया है, वर्तमान में कर्मक्षेत्र टीवी वेबसाईट में न्यूज इनपुट डेस्क पर कार्य कर रहे है !

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