बिहार चुनाव—रणनीति, सामाजिक समीकरण और लोकतंत्र की बदलती भाषा

– _ डॉ विजय श्रीवास्तव
बिहार का 2025 विधानसभा चुनाव केवल एक राजनीतिक प्रतिस्पर्धा नहीं, बल्कि राज्य की सामाजिक संरचना, नेतृत्व की विश्वसनीयता और लोकतांत्रिक संस्थाओं की भूमिका की गहरी परीक्षा साबित हुआ है। तेजस्वी यादव के नेतृत्व वाले गठबंधन ने यादव–मुस्लिम समीकरण पर अत्यधिक निर्भर होकर व्यापक गरीब वर्ग और नई पीढ़ी की आकांक्षाओं को पर्याप्त रूप से संबोधित नहीं किया। इससे साम्प्रदायिक और जातीय ध्रुवीकरण का लाभ सीधे-सीधे राजग को मिला। यह चुनाव विपक्ष की रणनीतिक विफलता के साथ-साथ उस चुनावी तंत्र की कमियों को भी उजागर करता है, जिस पर संदेह लगातार गहराता जा रहा है। जनता विकास चाहती है, लेकिन मुफ्त योजनाओं की राजनीतिक मिठास वोट प्रतिशत को प्रभावित करती है—यह चुनाव इस प्रवृत्ति का भी प्रमाण बनकर उभरा। नीतीश कुमार का सत्ता-विरोधी लहर से लगातार बच निकलना राजनीतिक पंडितों के लिए सदैव पहेली रहा है। एक ओर उनके शासन पर वर्षों से सवाल उठते रहे, वहीं दूसरी ओर वे गठबंधन की राजनीति में अपनी उपयोगिता साबित कर सत्ता के समीकरण अपने पक्ष में बनाए रख लेते हैं। बिहार की राजनीति ने इस बार भी सिद्धांतों से अधिक गठबंधन-गणित, संसाधनों के मध्यस्थता, सरकारी तंत्र और मीडिया प्रबंधन की शक्ति को प्राथमिकता दी। चुनाव आयोग की निष्पक्षता, प्रशासन की भूमिका और पैसों के बढ़ते प्रभाव ने सत्ता-धन गठजोड़ को पहले से ज्यादा मजबूत किया है—यह लोकतंत्र के लिए गंभीर संकेत है।
अहम बात यह भी है कि राष्ट्रीय जनता दल का 2010 के बाद 2025 में इतना कमजोर प्रदर्शन इस सत्य को सामने लाता है कि नई पीढ़ी अब वंशवादी राजनीति के राजकुमारों को सहज नेतृत्व के रूप में स्वीकार करने को तैयार नहीं। तेजस्वी यादव अपने पिता की पारंपरिक सामाजिक न्याय राजनीति को पुनर्जीवित करने का प्रयास करते हैं, लेकिन उनकी राजनीतिक दृष्टि समावेशी नहीं दिखती। टिकट बंटवारे में सामाजिक संतुलन की कमी और महागठबंधन के भीतर अंतहीन खींचतान ने उनके नेतृत्व पर प्रश्नचिह्न और गहरे कर दिए।
इसके उलट, एनडीए ने जातीय समीकरण का बारीकी से अध्ययन कर टिकट वितरण किया—85 सवर्ण, 39 दलित, 37 कुर्मी-कोइरी, 29 अतिपिछड़ा, 27 वैश्य, 19 यादव, 5 मुस्लिम और 2 आदिवासी प्रत्याशी उतारकर उसने सामाजिक इंजीनियरिंग को चुनावी हथियार के रूप में प्रभावी ढंग से इस्तेमाल किया। चिराग पासवान, जीतन राम मांझी और उपेंद्र कुशवाहा की वापसी ने दलित, अति पिछड़ा और ओबीसी वोटों को एकजुट किया। पासवान वोट बैंक का प्रभाव 50 से अधिक सीटों पर निर्णायक रहा और चिराग स्वयं को भले प्रधानमंत्री मोदी का ‘हनुमान’ बताते हों, पर इस चुनाव में वे नीतीश कुमार के लिए सहायक शक्ति साबित हुए। प्रधानमंत्री मोदी की 14 जिलों में 14 बड़ी सभाएँ इस बात का संकेत थीं कि एनडीए ने चुनाव को पूरी ताकत से लड़ा। जिन जिलों को उन्होंने कवर किया, उनमें 100 से अधिक सीटें आती हैं—और इनमें से अधिकतर पर एनडीए की बढ़त यह दिखाती है कि केंद्र का प्रभाव अभी भी बिहार की चुनावी जमीन पर मजबूत है।
जहाँ एक ओर एनडीए ने रणनीति, संसाधन और संगठन का प्रभावी तालमेल दिखाया, वहीं प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी उम्मीद के विपरीत कोई महत्वपूर्ण प्रभाव नहीं पैदा कर सकी। उनके 240 उम्मीदवारों का लगभग सर्वत्र पिछड़ना यह दर्शाता है कि जमीनी हकीकत केवल नैरेटिव-निर्माण से नहीं बदलती। महागठबंधन की सबसे बड़ी कमजोरी अंतर्द्वंद्व रहा—सीटों पर सहमति न होना, CM चेहरे पर फूट, टिकट बंटवारे में देरी और आपसी अविश्वास ने चुनाव-पूर्व ही उसे कमजोर स्थिति में ला खड़ा किया। 50 सीटों के आसपास सिमटना उसी विफल संगठनात्मक ढांचे का परिणाम है।
बिहार का 2025 चुनाव यह स्पष्ट संकेत देता है कि राज्य की राजनीति एक निर्णायक मोड़ पर है। सामाजिक न्याय की पुरानी परिभाषाएँ, वंशवादी नेतृत्व, और पारंपरिक पहचान-आधारित अपील अब उतनी प्रभावी नहीं रहीं। युवा मतदाता परिवर्तन, अवसर और शासन क्षमता की भाषा में राजनीति को देखना चाहता है। लेकिन साथ ही, चुनावी प्रक्रिया में धनबल, मीडिया नियंत्रण और सरकारी तंत्र की भूमिका का बढ़ता प्रभाव लोकतंत्र के भविष्य के लिए चिंताजनक है। बिहार को एक ऐसे नेतृत्व की जरूरत है जो सिर्फ जातीय गणित को न समझे बल्कि शासन की गुणवत्ता, पारदर्शिता और रोजगार की वास्तविकता को प्राथमिकता दे—अन्यथा चुनाव आते-जाते रहेंगे, लेकिन विकास की दिशा वहीं की वहीं अटकी रहेगी।





