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समता, समानता और लोकतांत्रिक अधिकारों की विजय का संकेत है वर्ष 2024 का आम चुनाव

वर्ष 2024 का लोकसभा चुनाव कई अर्थों में  राजनीतिक परिवर्तन के कई आयामों को बदलता हुआ दिखाई देता है। वर्ष 2014 में जब भारतीय जनता पार्टी ने “अच्छे दिन आने वाले हैं” का नारा दिया तो जन मानस को एक नए राजनीतिक परिवर्तन की आहट  सुनाई दी और उसने उठापटक और जोड़ तोड़ की राजनीति से तंग आकर भारतीय जनता पार्टी को पूर्ण बहुमत से सत्ता के शिखर तक पहुंचाया, किन्तु खेद ये रहा सत्ता के शिखर पर आने के बाद सत्ताधारी दल कांग्रेस मुक्त भारत या यूँ कहें कि विपक्ष मुक्त लोकतंत्र का सपना लोगों को दिखाने लगे।

इसी बीच कई मुद्दों पर सरकार ने विपक्ष की आवाज को नकारते हुए हुए  विवादस्पद निर्णय लिए। वर्ष 2019  की प्रचंड जीत के बाद सत्ताधारी दल की निरंकुशता और बढ़ गई। राजनीतिक और धार्मिक धुर्वीकरण के कारण समाजिक समसरता और सौहार्द में कमी आई। वर्ष 2024 में इसी बात के अहंकार में सत्ताधारी दल ने अबकी बार 400 पार का नारा दिया किन्तु भारत की जनता ने इस नारे को सिरे से ख़ारिज कर दिया और एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए पाने जनादेश के द्वारा विपक्ष के हाथों को मजबूत करते हुए सत्ता की निरकुंशता पर लगाम लगाई। अबकी बार 400  पार का नारा  लोकतंत्र की मूल आत्मा के विपरीत था।

केंद्र की मोदी सरकार ये भूल गई कि 19वीं सदी में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बेंजमिन डिज़राइली ने कहा था, “मज़बूत विपक्ष के बिना कोई सरकार लंबे समय तक सुरक्षित नहीं हो सकती। जनता ने अपने लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा विपक्ष के सामाजिक न्याय के संदेशो पर मुहर लगा कर की, अब भले ही  भारतीय जनता पार्टी नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में लगातार तीसरी बार सरकार बनाने जा रही हो किन्तु जनता का विश्वास और हाथ  सामाजिक न्याय और समरसता करने वालों के साथ भी है। सत्ता में अब एक पार्टी का एकाधिकार नहीं अपितु गठबंधन की सरकार है। कई मुद्दों पर नीतीश  कुमार और चंद्र बाबू नायडू सरकार को एकाधिकारिक निर्णय लेने से रोकेगें।

विपक्ष भी विकास आधारित मुद्दों पर अपनी बात  मजबूती से कह सकेगा। चुनाव के नतीजों से एक बात और स्पष्ट हो गई कि लोकतंत्र में चुनाव एक व्यक्ति या एक व्यक्ति की गारंटी पर नहीं लड़ा जा सकता। व्यक्तिवाद और अधिनायकवाद लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए जनता ने मोदी की गारंटी के चुनावी झुनझने को आईना  दिखा दिया।

आम चुनावों के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ कि देश के सबसे बड़े सत्ताधारी राजनीतिक दल ने अपने पीएम के नाम पर ही इलेक्शन मैनिफ़ेस्टो जारी कर दिया.14 अप्रैल को जारी किए ‘संकल्प पत्र’ में हर वादे पर ‘मोदी की गारंटी’ की मुहर थी और साफ़ था पार्टी अपने सबसे बड़े नेता को ‘चुनावी चेहरा’ बनाकर प्रोजेक्ट कर रही है।

यानी 2013 में जब से मोदी पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बने थे, तब से अब तक कुछ नहीं बदला था. इस दौरान पार्टी न सिर्फ़ केंद्र में आसीन रही बल्कि भाजपा ने दूसरे राज्यों पर भी अपनी पकड़ मज़बूत की. लेकिन इस चुनाव में ‘मोदी की गारंटी’ का मनचाहा असर नहीं हुआ।

वरिष्ठ पत्रकार और हिंदुस्तान टाइम्स अख़बार के एडिटोरियल डायरेक्टर रहे वीर सांघवी को लगता है, “भाजपा की रणनीति शुरू से आख़िर तक अपने प्रधानमंत्री पर ही पूरा दांव लगाने की थी, इसमें तो कोई शक नहीं था कि मोदी फ़िलहाल भारत के सबसे लोकप्रिय नेता हैं और भाजपा ने इसी बात को अपना ट्रंप-कार्ड बना रखा था।

इस पार्टी का इतिहास बताता है कि किसी भी चुनाव में सिर्फ़ एक व्यक्ति के इर्द-गिर्द इतनी व्यापक चुनावी कैंपेन नहीं हुई थी जितनी 2024 में हुई. दरअसल, नरेंद्र मोदी का प्रोजेक्शन उससे भी बड़ा किया गया जैसा इंदिरा गांधी का 1971 कैंपेन में किया गया था। किन्तु ये अभियान असफल हो गया।
  
लोकसभा चुनाव 2024 के नतीजों ने भारत में राजनीतिक संतुलन को फिर से स्थापित कर दिया है। लोकसभा में प्रतिरोध की आवाज़ें बढ़ने से भाजपा के स्व-केंद्रित एकतरफा फ़ैसलों की पूरी रफ़्तार थम जाएगी। एक बार फिर असहमति के स्वर मुखर होंगे। संसद के वे सदस्य जो नस्लवादी, लैंगिकवादी, जातिवादी और सांप्रदायिक भाषणों और बयानों पर मुस्कराते और ताली बजाते थे, उनमें काफ़ी कमी आएगी।

उम्मीद है कि बेशर्म कट्टरता भी पीछे छूट जाएगी। हालाँकि, इस लोकसभा चुनाव में सबसे बड़ा जश्न, कम से कम उन लोगों के लिए जो इस देश के धर्मनिरपेक्ष लोकाचार को संजोते हैं, लोकसभा में पहुँचने वाले मुस्लिम उम्मीदवारों की उचित रूप से प्रभावशाली संख्या है।

हाल ही में एक और डर था कि मुस्लिम चेहरे, नाम और आवाज़ें अंततः लोकसभा से गायब हो जाएँगी, गलत साबित हुई। शायद इसे ही लोकतंत्र की शक्ति कहा जाता है: दमन के प्रतिरोध की भावना और बहुलता और विविधता की रक्षा के लिए लोकतांत्रिक स्थानों को पुनः प्राप्त करने के लिए अब विपक्षी दलों के पास भी संख्या बल है |

एनडीए भले ही सरकार बनाए, लेकिन यह कमज़ोर होगी। नई सरकार को लगातार आत्मविश्वास की कमी और पूर्ण संख्याबल की चुनौती का सामना करना पड़ेगा, साथ ही इतिहास में नुकसान की भरपाई के नाम पर प्रचारित कट्टरता की वास्तविक हार की शर्मिंदगी भी झेलनी पड़ेगी।

एक समान और स्वच्छ भविष्य की ओर अग्रसर हिंदुत्ववादी ताकतों के बेलगाम पागलपन को फिलहाल टालना होगा। विपक्ष, अपने नए जोश और ठोस चुनावी लाभ और लोकसभा में प्रवर्धित आवाज़ के साथ, जाति और अन्य विविध हाशिए के मुद्दों पर केंद्रित सामाजिक न्याय की राजनीति को एक बार फिर केंद्र में ले जाएगा। गरीबों की राजनीति राजनीति के गरीबों को पीछे छोड़ देगी और समता और समानता का एक नया युग स्थापित होगा।

( राम कुमार और विजय गुंजन, लेखक निषाद राज एकता मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष और स्वंत्रत पत्रकार हैं। )
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