भगत सिंह के जन्म दिवस पर आज फेसबुक और अन्य सोशल मीडिया माध्यम उनके चित्रों और कुछ सूक्त वाक्यों से भरे दिखाई देंगें | किन्तु इस औपचारिक श्र्द्धांजलि के कार्यक्रम और अंतर जाली अभियान में जो बात सबसे पीछे रह जायेगी – वह है भगत सिंह का उच्च कोटि का वैज्ञानिक दृष्टिकोण | ये दुर्भाग्य का विषय है कि हम आजादी के नायकों का सम्मान केवल उनके चित्रों और मूर्तियों पर पुष्पों के हार चढ़ाकर करते हैं जबकि वास्तविक सम्मान उनके विचारों के प्रसार और उन विचारों के गहन अध्धयन से होना चाहिए | भगत सिंह और उनके विचार भी इस औपचारिक सम्मान कार्यक्रम के शिकार हुए हैं | वे लोगों के लिए मात्र आजादी की लड़ाई के हिंसक क्रांति के नायक हैं परन्तु ये तो उनका संक्षिप्त जीबन परिचय मात्र है, जबकि वे भारतीय समाज में प्रगतिशील वैज्ञानिक आंदोलन के योद्धा हैं और उनका वैचारिक दृष्टिकोण समाजवादी धारा में एक नवीन समाज की रचना के लिए आधार प्रस्तुत करता है | वे केवल 23 वर्ष जिए किन्तु उनका चिंतन उनकी अल्पायु के पाश में नहीं समा सका |
भगत सिंह के क्रांतिकारी वैज्ञानिक दृष्टिकोण को उनके इस बयान से समझा जा सकता है जो बम विस्फोट के केस के दौरान न्यायालय में दिया था , वे कहते हैं कि “क्रांति -मानव जाति का अनन्य अधिकार है तथा स्वतंत्रता सभी का जन्म सिद्ध अधिकार | इस समाज के वास्तविक अभिरक्षक उसके कामगार होते हैं तथा जन साधारण की संप्रभुता ही कामगारों की अंतिम नियति है | इन आदर्शों और विश्वास के लिए ,हमें ऐसी हर तकलीफ झेलनी होगी जिसके लिए हमें निंदा का सामना भी करना पड़ सकता है | इंकलाब जिंदाबाद ! भगत सिंह ये जानते थे सांस्कृतिक मिथकों और रूढ़िवादिताओं में जकड़े भारतीय समाज में वैज्ञानिक चेतना लाना इतना आसान नहीं है , इसलिए उन्होंने वैज्ञानिक विचार सम्पन्न प्रगतिशील देश बनांने के लिए तर्कशील विचारों के प्रसार प्रचार पर जोर दिया | महान लेखक मुदा राक्षस कदाचित इसीलिये उन्हें तार्किक आधुनिक वादी और गांधी को सनातन परम्परवादी कहते थे | ऐसा नहीं था कि मार्क्सवाद और समाजवाद के विचारों से प्रभावित भगत सिंह को सांस्कृतिक मूल्यों की समझ नहीं थी | उन्होंने अपने क्रांतिकारी साथी बाबा सोहन सिंह भकना से कहा था “हमारी पुरानी विरासत के दो पक्ष होते हैं | एक सांस्कृतिक दूसरा मिथकीय | मैं सांस्कृतिक गुणों को जैसे निष्काम देश सेवा , बलिदान विश्वासों पर अटल रहकर , पुरानी सच्चाई को अपना कर आगे बढ़ने की कोशिश में हूँ लेकिन मिथकीय विचारों को जो कि पुराने विधानों के अनुरूप हैं , वैसे को वैसा मानने को तैयार नहीं हूँ क्योंकि विज्ञानं ने ज्ञान में खूब वृद्धि की है और वैज्ञानिक विचार अपनाकर ही भविष्य की समस्याएं हल हो सकती हैं ” |
लेखक ओम प्रकाश दास के अनुसार भगत सिंह मानव कलयाण ऐसी विचारधारा की खोज में थे, जो न सिर्फ व्यावहारिक हो बल्कि वैश्विक स्तर पर उसके अनुभव भी मौजूद हों। उनकी ये खोज स्कूल के दिनों से ही शुरू हुई जो लाहौर के नेशनल कॉलेज तक पहुंची। कॉलेज में ही वह कार्ल मार्क्स, मेजिनी और गैरीबाल्डी की जीवनी पढ़ चुके थे। मार्क्स, एंगल्स, लेनिन और ट्राटस्की के लेखन से वह परिचित हो चुके थे। जाहिर है उनके व्यक्तित्व पर इन सबका गहरा असर पड़ा | इस विचारा यात्रा के दौरान उन्होंने आर्थिक असामनता गरीबी , वर्ग संघर्ष और शोषण की मार्क्सवादी अवधारणाओं को भारतीय संदर्भ में समझा और अपनी लेखनी भी चलाई | इन सारे आर्थिक और सामाजिक मुद्दों पर उनका दृष्टिकोण नवीन और रचनात्मक था | वे नैतिक बोध के आधार पर स्वेच्छा से गरीबी को अपनाने के गांधीवादी दृष्टिकोण को अस्वीकार करते हैं | उनका कहना था नैतिक जीवन का ये नाटक गरीबी के नाम पर विपन्न और मजबूर आदमी की अस्मिता खरीदता है और ये मानव सभ्यता का सबसे बड़ा अपराध है | उनके अनुसार अर्थ क्षेत्र में असमानताएं निरकुंशता पैदा करती हैं और इन निरंकुशताओं का जन्म नैतिक स्वतंत्रता के नाम पर गरीब को और गरीब बनाये रखने से होता है | वे कहते थे कि लोग नैतिक स्वतंत्रता के नाम पर प्राकृतिक स्वतंत्रता का समर्पण करते हैं |
ओम प्रकाश ने ये भी कहा कि , ऐसा नहीं है कि वह लेनिन या मार्क्सवादियों के रास्ते पर ही भारत का भविष्य देखते थे, लेकिन समाजवाद की अवधारणा के समर्थक तो वो थे ही। आज जो वामपंथ हम अपने देश में देखते हैं वह भारतीय परिवेश में बिलकुल अप्रासंगिक है। भारतीय मानस अर्थ से ज्यादा एक ऐसे आध्यात्मिक संसार की तरफ देखता रहता है जहां ऊंच- नीच, जात-पांत, राजा-रंक यह सामाजिक व्यवस्था नहीं बल्कि किसी और की बनाई व्यवस्था है जिसे हमें नहीं छेड़ना चाहिए। मामला पूरी तरह आर्थिक ताने बाने में ही नहीं गुंथा है। भगत सिंह यह अच्छी तरह समझ चुके थे। वह कहते थे, ‘हमारा लक्ष्य शासन शक्ति को उन हाथों के सुपुर्द करना है, जिनका लक्ष्य समाजवाद हो और इसके लिए मजदूरों, किसानों को संगठित करना जरूरी है.’|
पूंजीवादी लालच के कारण जन्मी शोषण आधारित समाज व्यवस्था में समतामूलक परिवर्तन ही उनकी समाजवादी क्रान्ति का मुख्य लक्ष्य था | वे समाज के सबसे निचले तबके में बौद्धिक चेतना का प्रकटीकरण चाहते थे | जैसा कि आज छद्मम धार्मिक मूल्यों और राष्ट्रवाद के नाम पर समाज के लोगों की समझ पर बेड़ियाँ लगाई जा रही हैं ये बेड़ियाँ एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए खतरा हैं शायद इसीलिये उन्होंने कहा था कि , “एक परोपकारी निरकुंशता द्वारा किसी देश पर शासंन करने के सभी प्रयासों में शासितों को कुचला जाता है | वे व्यवहारशील नागरिक नहीं आज्ञाकारी प्रजा बन जाते हैं | उनकी आत्मिक अभिव्यक्ति मर जाती है | आज के संदर्भ में जो देश के हालात हैं उससे ये बात स्पष्ट है कि भगत सिंह ने पूंजीवादी लोकत्रंत की निरकुंशता को आज से 100 वर्षों पहले ही भांप लिया था और मॉडर्न रिव्यु को लिखे अपने खत में कहा था कि ” रूढ़िवादी शक्तियां मानव समाज को कुमार्ग की तरफ ले जाती हैं “| जिस तरह देश में पिछले कई वर्षों में धर्म और जाति के नाम पर वैमनस्य बढ़ा है वो कहीं न कही कुमार्ग ही है | ये सोचने का विषय है कि समाज अब किसके साथ खड़ा होना चाहता है भगत सिंह की मूर्तियों के साथ या उनके वैज्ञानिक विचारों के साथ | किन्तु खतरा उससे भी बड़ा है क्योंकि रूढ़िवादियों ने उनके विचारों को रोकने के लिए उनकी मूर्तियों पर अनाधिकृत अतिक्रमण करके समाज को धर्म रुपी अफीम चटा दी है |
डा. विजय श्रीवास्तव द्वारा लिखित लेख