बिहार में अपराध नियंत्रण की असली चुनौती: शराबबंदी और उसका अंधेरा पक्ष

रिपोर्ट: तारकेश्वर प्रसाद, आरा (बिहार)
बिहार में शराबबंदी को लागू हुए करीब आठ साल पूरे हो चुके हैं। नीतीश कुमार सरकार ने इसे सामाजिक सुधार की दिशा में बड़ा कदम बताते हुए पूरे राज्य में शराब की बिक्री और खपत पर पूर्ण प्रतिबंध लगाया था। लेकिन इस कानून का जमीन पर क्या असर हुआ? क्या इससे अपराध में कमी आई? या फिर इसके नाम पर एक और अपराध जगत पनप गया है?
शराबबंदी का उद्देश्य और उसका यथार्थ
2016 में जब बिहार में शराबबंदी लागू की गई, तो इसकी मंशा बिल्कुल स्पष्ट थी – समाज को नशामुक्त करना, महिलाओं को घरेलू हिंसा से राहत दिलाना, और युवाओं को नशे से बचाना। शुरुआत में इसके सकारात्मक संकेत भी मिले। लेकिन धीरे-धीरे जिस तरीके से अवैध शराब का धंधा बढ़ा, उसने इस नीति की नींव को ही सवालों के घेरे में ला खड़ा किया।
आज आलम यह है कि शराबबंदी एक ‘कानून’ कम और एक ‘अवसर’ ज़्यादा बन गया है – अपराधियों के लिए भी और कुछ हद तक सिस्टम के कुछ हिस्सों के लिए भी।
अवैध शराब कारोबार: एक नया संगठित अपराध
बिहार में अब शराबबंदी के कारण अवैध शराब का कारोबार एक संगठित अपराध में बदल चुका है। यह अब केवल देसी भट्ठियों तक सीमित नहीं, बल्कि अंतरराज्यीय नेटवर्क से जुड़ा हुआ है। उत्तर प्रदेश, झारखंड, बंगाल और यहां तक कि नेपाल से शराब की तस्करी हो रही है।
गांवों में जहां पहले ताड़ी और महुआ पीने की बात होती थी, वहां आज विदेशी शराब की अवैध आपूर्ति हो रही है। यह काम अब “छोटे-मोटे अपराधियों” का नहीं, बल्कि संगठित गैंग का है – जिनके पास हथियार, पैसा और पॉलिटिकल कनेक्शन तक हैं।
पुलिस के सामने प्रणालीगत चुनौती
राज्य में एक से एक तेजतर्रार आईपीएस अधिकारियों की तैनाती हुई है – जैसे कि राजविंदर सिंह भट्टी, विनय कुमार, और कुंदन कृष्णन। इन अधिकारियों ने अपने कार्यक्षेत्रों में अपराध नियंत्रण में मिसालें कायम की हैं। फिर भी अगर बिहार में वे पूर्ण रूप से सफल नहीं हो पा रहे हैं, तो यह एक गंभीर संकेत है।
इससे साफ होता है कि समस्या सिर्फ कानून लागू करने की नहीं है, बल्कि पूरी प्रशासनिक और राजनीतिक प्रणाली में कहीं न कहीं गहरी खामियां हैं।
अपराध का बदलता चेहरा
आज कई लोग कहते हैं कि “बिहार में अपहरण की घटनाएं कम हो गई हैं।” यह बात सही है, लेकिन अधूरी भी। दरअसल, अपराधियों ने अपना तरीका बदला है, नीयत नहीं।
अब अपहरण जैसे जोखिम भरे अपराध की जगह, कम जोखिम और अधिक मुनाफे वाले अपराध – जैसे शराब तस्करी, नकली शराब निर्माण, और ड्रग्स की सप्लाई – का रास्ता चुना जा रहा है।
इससे राज्य में अपराध की प्रकृति बदली है, लेकिन संख्या और संगठित अपराध का स्तर बढ़ा है।
शराबबंदी हटे तो क्या होगा?
यह बहस अब तेज हो चुकी है कि क्या बिहार में शराबबंदी को खत्म कर देना चाहिए?
अगर सरकार ऐसा करती है, तो इसका तात्कालिक प्रभाव अत्यंत अस्थिर हो सकता है।
हजारों लोग जो आज अवैध शराब से जुड़े हुए हैं – चाहे माफिया हों, भट्ठी संचालक हों, या डिलीवरी बॉय – वे एक झटके में बेरोजगार हो जाएंगे। और जब आय का स्रोत छिनता है, तो अपराध की तरफ झुकाव एक सामाजिक मजबूरी बन जाती है।
समाधान क्या है?
शराबबंदी की नीति को सफल बनाने के लिए महज कानून काफी नहीं है। इसके लिए चाहिए:
1. तकनीकी निगरानी तंत्र: ड्रोन, सीसीटीवी, मोबाइल ट्रैकिंग और फोरेंसिक की मदद से नेटवर्क को ट्रैक करना।
2. ईमानदार प्रशासन: पुलिस, उत्पाद विभाग और स्थानीय प्रशासन के बीच तालमेल और भ्रष्टाचार मुक्त कामकाज।
3. राजनीतिक इच्छाशक्ति: कोई भी फैसला – चाहे शराबबंदी खत्म करना हो या सख्ती से लागू रखना – राजनीतिक लाभ से ऊपर उठकर लिया जाना चाहिए।
4. संक्रमण काल की तैयारी: अगर शराबबंदी हटाई जाए, तो उस संक्रमण काल में रोजगार, पुनर्वास और निगरानी की व्यवस्था पहले से तैयार होनी चाहिए।