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बिगड़ता साम्प्रदायिक सदभाव और हमारा समाज ! क्या इस  ध्रुवीकरण का हल गांधी की दृष्टि में है ?

   

लेखक : डा. विजय श्रीवास्तव , लवली प्रोफ़ेशनल विश्वविद्यालय, पंजाब

हाल के ही दिनों में राजनीतिक और धार्मिक धुर्वीकरण के चरम  के चलते देश  का  सांप्रदायिक सौहार्द बिगड़ा है और धार्मिक उन्माद के चलते भीड़ तंत्र द्वारा कई निर्दोषों की जान चली गयी | सवाल ये है कि आजादी का अमृत महोत्सव  मनाने वाले  लोकतांत्रिक देश में लोगों की जान इतनी सस्ती है कि उसे भीड़ द्वारा छीन लिया जाये | समाज में बढ़ता ध्रुवीकरण राजनीतिक दलों के बीच विश्वास की कमी से जुड़ा है, और बदले में लोकतांत्रिक मानदंडों और मूल्य प्रणालियों को तनाव में डाल रहा है। शासन के विभिन्न संस्थान क्षय के संकेत दे रहे हैं। इसके अतिरिक्त, अर्थव्यवस्था अच्छी स्थिति में नहीं दिख रही है और इसलिए लाखों युवा भारतीयों की आकांक्षाओं को पूरा करना कठिन होता जा रहा है। ये धार्मिक उन्माद अर्थव्यवस्था को भी बुरी स्थिति में पहुंचा देता है और इसका साक्षात उदाहरण श्रीं लंका के आर्थिक और राजनैतिक पतन के रूप में हमारे सामने है | क्या हम इससे कुछ सीख लेंगें या भारत को भी एक बहुसंख्यक उन्मादी देश बन जाने देगें ! विडंबना तो ये है कि धार्मिक उन्माद को हवा देने वाले राजनीतिक दलों ने भी महापुरुषों के विचारों का भी अपनी सुविधानुसार अपने राजनीतिक लाभ के लिए ध्रुवीकरण करना प्रारंभ कर दिया है | महात्मा गांधी जी भी उन महापुरुषों में से एक हैं जबकि साम्प्रदायिकता को लेकर उनकी दृष्टि एकदम स्पष्ट थी |

महात्मा गांधी सांप्रदायिकता के  प्रखर विरोधी थे और विभिन्न धर्मों के आपसी भाईचारे के कितने प्रबल समर्थक थे और इस संदर्भ में उन्होंने समाचार पत्रों में बहुत ही विचारों से परिपूर्ण लेख लिखे  | वे आजाद भारत में  साम्प्रादायिक उन्माद नहीं बल्कि  सौहार्द चाहते थे | ये सौहार्द ही तो , आर्थिक आजादी का प्रथम लक्षण है | जबकि आज की घटनाएं हिंसा और  द्वेष से ग्रसित हैं | आखिर क्यों एक मुसलमांन मंदिर के सामने खिलौनें के ठेले नहीं लगा सकता ? या फिर एक हिन्दू किसी मस्जिद के सामने पानी का स्टाल नहीं लगा सकता | जहाँ आजीविका का सवाल हो वहां धार्मिक कटटरता भूख और बेकारी बढ़ाती है | गांधी जी ये बात समझते थे इसीलिये वे हिन्दू -मुस्लिम एकता पर बल देते थे |  उनके कुछ कथन आज के माहौल में उनकी प्रांसगिकता को साबित करते हैं | 


– मेरी लालसा है कि यदि आवश्यक हो तो मैं अपने रक्त से हिंदू और मुसलमानों के बीच संबंधों को दृढ़ कर सकूं। (यंग इंडिया, 25.9.1924)


– मैं हिंदुओं को जितना प्रेम करता हूं उतना ही मुसलमानों को भी करता हूं। मेरे हृदय में जो भाव हिन्दुओं के लिए उठते हैं वही मुसलमानों के लिए भी उठते हैं। यदि मैं अपना हृदय चीरकर दिखा सकता तो आप पाते कि उसमें कोई अलग-अलग खाने नहीं है, एक हिंदुओं के लिए, एक मुसलमानों के लिए, तीसरा किसी ओर के लिए आदि-आदि। (यंग इंडिया – 13.8.1921)


– मैं जानता हूं कि मेरे जीवनकाल में नहीं तो मेरी मृत्यु के बाद हिंदू और मुसलमान दोनों उसके साक्षी होंगे कि मैंने सांप्रदायिक शान्ति की लालसा कभी नहीं छोड़ी थी। (यंग इंडिया, 11.5.1921)


    जनवरी 1948 में अपनी शहादत से कुछ ही दिन पहले एक उपवास के दौरान उन्होंने कहा था, ‘जब मैं नौजवान था और राजनीति के बारे में कुछ नहीं जानता था, तभी से मैं हिन्दू, मुसलमान, वगैरा के हृदयों की एकता का सपना देखता आया हूं। मेरे जीवन के संध्याकाल में अपने उस स्वप्न को पूरा होते देख कर मैं छोटे बच्चों की तरह नाचूंगा।’… ऐसे स्वप्न की सिद्धि के लिए कौन अपना जीवन कुर्बान करना पसंद नहीं करेगा? तभी हमें सच्चा स्वराज्य मिलेगा। (पूर्णाहुति, खंड चार, पृष्ठ 322)


हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए महात्मा गांधी ने यह राह बताई थी, ‘हम एक दूसरे के गमों में साझी होकर और परस्पर सहिष्णुता की भावना रखकर एक दूसरे के साथ सहयोग करते हुए अपने सामान्य लक्ष्य की ओर बढ़ेंगे तो यह हिंदू-मुस्लिम एकता की दिशा में सबसे मजबूत कदम होगा।’ (यंग इंड़िया 11-5-1921)


साथ ही उन्होंने कहा कि केवल हिंदू-मुस्लिम नहीं सभी धर्मों के मानने वालों की आपसी सद्भावना और एकता आवश्यक है।


– हिंदू-मुस्लिम एकता का अर्थ केवल हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच एकता नहीं है बल्कि उन सब लोगों के बीच एकता है जो भारत को अपना घर समझते हैं उनका धर्म चाहे जो हो।’ (यंग इंड़िया 20-10-1921)


– जितने मजहब हैं मैं सबको एक ही पेड़ की शाखायें मानता हूं।  मैं किस शाख को पसन्द करूं और किसको छोड़ दूँ ।  किसकी पत्तियां मैं लं और किसकी पत्तियां मैं छोड़ दूँ  ।’ (गांधी महात्मा समग्र चिंतन- डॉ. बी.एन. पांडे-पृष्ठ 134)


महात्मा गांधी के लिए स्वतंत्र भारत की एक मूल बुनियाद यह थी की सब धर्मों से समानता का व्यवहार हो। उन्होंने कहा – ‘आजाद हिन्दुस्तान में राज्य हिंदुओं का नहीं, बल्कि हिन्दुस्तानियों का होगा, और उसका आधार किसी धार्मिक पंथ या संप्रदाय के बहुमत पर नहीं, बल्कि बिना किसी धार्मिक भेदभाव के समूचे राष्ट्र के प्रतिनिधियों पर होगा।… धर्म एक निजी विषय है जिसका राजनीति में कोई स्थान नहीं होना चाहिए।’ (हरिजन सेवक – 9.8.42)

यहाँ तक की सरदार पटेल का नाम लेकर राजनीति चमकाने वाली पार्टी को भी सरदार जी के कथन से सीख लेनी चाहिए जब उन्होंने हिन्दू राज को पागलपंन कहा  था | सरदार पटेल ने ‘फरवरी, 1949 में ‘हिंदू राज’ यानी हिंदू राष्ट्र की चर्चा को ‘एक पागलपन भरा विचार’ बताया. और 1950 में उन्होंने अपने श्रोताओं को संबोधित करते हुए कहा, ‘हमारा एक धर्मनिरपेक्ष राज्य है… यहां हर एक मुसलमान को यह महसूस करना चाहिए कि वह भारत का नागरिक है और भारतीय होने के नाते उसका समान अधिकार है. यदि हम उसे ऐसा महसूस नहीं करा सकते तो हम अपनी विरासत और अपने देश के लायक नहीं हैं.’

बढ़ते राजनीतिक ध्रुवीकरण और विश्वास की कमी ने समाज में संस्थाओं और लोकतांत्रिक संस्कृति पर दबाव डाला है। इन मुद्दों को हल करने का   गांधीवादी तरीका यह है कि पूरे समाज   में संवाद बढ़ाने के तरीके खोजे जाएं।  2022 भारतीय स्वतंत्रता का 75 वां वर्ष है और हमें यह योजना बनानी चाहिए कि हम चाहते हैं कि भारत एक समाज के रूप में और एक राष्ट्र के रूप में 2047 तक किस दिशा में जाए, जब देश अपनी स्वतंत्रता के 100वें वर्ष का जश्न मनाएगा। यह साझा दृष्टिकोण हम सभी को बांधना चाहिए और हमें संवाद बढ़ाने और विश्वास की कमी को कम करने के तरीके खोजने में मदद करनी चाहिए।

 अजान बनाम हनुमान विवाद में उलझे लोगों को भी सरदार पटेल के कथन का स्मरण करना चाहिए जहां वे लोगों को स्वराज का सही अर्थ समझाते हुए आंतरिक कलहो से बचने को कहते हैं, “हमें स्वराज नहीं विदेशी शासन से मुक्ति मिली है लोगों को आंतरिक स्वराज जीतना होगा और उन्हें जाति तथा संप्रदाय का भेदभाव मिटाना होगा | ” आज जब राजनीतिक ध्रुवीकरण ने युवाओं के दिमाग में नफरत का विष भर दिया है , हमें ही आगे आकर धार्मिक कटटरता मिटानी होगी और तर्कशील शिक्षा की नीव रखनी होगी | किन्तु जहां राज्य शिक्षा का धार्मिक ध्रुवीकरण करता हो वहां ऐसा करना आसान नहीं है | तो क्या सत्याग्रह ही एक एक मार्ग है ? पर वो सत्याग्रह भी कहीं हिंसक क्रांति में न बदल जाये | दिमागी ध्रुवीकरण के जड़ें गहरा चुकी हैं ! अब इन्हे उखाड़ने का समय