लोक भाषाओं को संजोने की ऐतिहासिक पहल: स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल होंगी गढ़वाली, कुमाऊंनी और जौनसारी

Report By: उत्तराखंड डेस्क
देहरादून:राज्य की लोक संस्कृति और भाषायी विविधता को संरक्षित और प्रोत्साहित करने की दिशा में एक ऐतिहासिक कदम उठाते हुए सरकार ने गढ़वाली, कुमाऊंनी और जौनसारी भाषाओं को स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल करने का निर्णय लिया है। यह निर्णय प्रदेश की सांस्कृतिक अस्मिता को सुदृढ़ करने की दिशा में मील का पत्थर साबित होगा।
प्रदेश के मुख्यमंत्री ने इस विषय में जानकारी देते हुए कहा कि “प्रदेश की समृद्ध लोक संस्कृति और लोक भाषाओं को संजोना व सशक्त बनाना हमारी सरकार की प्राथमिकता है।” उन्होंने स्पष्ट किया कि यह पहल केवल भाषायी संरक्षण का प्रयास नहीं, बल्कि सांस्कृतिक पहचान और आत्मगौरव से भावी पीढ़ी को जोड़ने का एक सशक्त माध्यम भी है।
क्यों ज़रूरी है यह कदम?
उत्तराखंड का इतिहास, परंपराएं और सांस्कृतिक धरोहर उसकी लोक भाषाओं में ही रची-बसी हैं। समय के साथ इन भाषाओं का प्रयोग सीमित होता जा रहा है और नई पीढ़ी से इनका जुड़ाव कम होता जा रहा है। स्कूली शिक्षा में इन भाषाओं को सम्मिलित करने से न केवल बच्चों में अपनी मातृभाषा के प्रति रुचि बढ़ेगी, बल्कि वे अपने इतिहास, लोकगीतों, पर्वों और रीति-रिवाज़ों से भी गहराई से जुड़ पाएंगे।
विशेषज्ञों के अनुसार, मातृभाषा में शिक्षा ग्रहण करने से बच्चों की सीखने की क्षमता बेहतर होती है और भावनात्मक जुड़ाव भी गहरा बनता है। यह निर्णय न केवल भाषा को जीवित रखने का प्रयास है, बल्कि इससे स्थानीय समुदायों में आत्मसम्मान और पहचान की भावना भी मजबूत होगी।
पाठ्यक्रम में कैसे होगा समावेश?
शिक्षा विभाग द्वारा तैयार की जा रही योजना के अंतर्गत, प्रारंभिक कक्षाओं से ही इन लोक भाषाओं को भाषा-अधिगम के विकल्प के रूप में प्रस्तुत किया जाएगा। इसके लिए विशेषज्ञों और भाषाविदों की मदद से पाठ्य सामग्री तैयार की जा रही है, जिसमें लोक कथाएं, पहेलियां, गीत और क्षेत्रीय साहित्य को स्थान दिया जाएगा। साथ ही, शिक्षकों को विशेष प्रशिक्षण भी दिया जाएगा ताकि वे इन भाषाओं में दक्षता के साथ बच्चों को शिक्षा दे सकें।
सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभाव
गढ़वाली, कुमाऊंनी और जौनसारी भाषाएं केवल संवाद के साधन नहीं हैं, ये हमारी पहचान, लोकजीवन और सांस्कृतिक भावनाओं की जीवंत अभिव्यक्ति हैं। इन भाषाओं के पुनरुत्थान से न केवल सांस्कृतिक पर्यटन को बल मिलेगा, बल्कि स्थानीय कलाकारों, लेखकों और सांस्कृतिक कार्यकर्ताओं को भी नया मंच और अवसर प्राप्त होंगे।
यह पहल ग्रामीण क्षेत्रों में सांस्कृतिक आत्मनिर्भरता को भी प्रोत्साहित करेगी, जहां आज भी ये भाषाएं बोली जाती हैं। इसके अतिरिक्त, यह कदम राज्य के युवाओं को वैश्वीकरण के दौर में अपनी जड़ों से जोड़े रखने का एक सशक्त माध्यम भी बन सकता है।
गढ़वाली, कुमाऊंनी और जौनसारी भाषाओं को स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल करने का निर्णय उत्तराखंड सरकार की दूरदर्शी सोच और सांस्कृतिक प्रतिबद्धता का परिचायक है। यह न केवल भाषाओं को संरक्षित करने का माध्यम है, बल्कि सामाजिक समरसता, सांस्कृतिक गर्व और भाषायी विविधता को समृद्ध करने की दिशा में एक प्रेरणादायी कदम भी है।
प्रदेशवासियों से अपील की गई है कि वे इस पहल का स्वागत करें और अपनी भाषाओं के संरक्षण में भागीदार बनें, ताकि हमारी आने वाली पीढ़ियां अपनी भाषा और संस्कृति पर गर्व कर सकें।