स्त्री की सही परिभाषा: पुरुषवादी सोच का अंत कब?

लेखक : डॉ. विजय श्रीवास्तव
समाज में सदियों से स्त्री को परिभाषित करने का कार्य पुरुष करता आ रहा है। उसे देवी बनाकर पूजा गया, श्रद्धा और ममता का प्रतीक बताया गया, लेकिन क्या यही स्त्री की सही परिभाषा है? यह सोच, जो स्त्री को केवल एक पूजनीय या त्याग की मूर्ति मानती है, असल में उसके वास्तविक अस्तित्व को सीमित कर देती है। स्त्री को एक स्वतंत्र, सोचने-समझने वाली, निर्णय लेने वाली और अपनी शर्तों पर जीने वाली इंसान के रूप में देखने की आवश्यकता है।
स्त्रीत्व बनाम पुरुषवादी सोच
समाज में स्त्री के संघर्ष को अक्सर अनदेखा किया जाता है। इतिहास में युद्धों की गाथाओं का महिमामंडन किया गया, लेकिन स्त्रियों के संघर्ष, उनकी उपलब्धियों और उनकी रचनात्मकता को दबा दिया गया। यह दमन केवल बाहरी नहीं, बल्कि मानसिक और वैचारिक भी है। स्त्री को देवी बना देना भी एक तरह का पुरुषवादी षड्यंत्र है, क्योंकि यह उसे इंसान से ऊपर उठाकर एक ऐसी स्थिति में पहुँचा देता है जहाँ उससे केवल त्याग और सहनशीलता की अपेक्षा की जाती है।
भाषा और स्त्री: अपमान की संस्कृति
समाज में भाषा भी पुरुषवादी मानसिकता का परिचायक है। स्त्री को अपमानित करने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली गालियाँ इस बात का प्रमाण हैं कि पुरुषवादी सोच स्त्री को मात्र एक वस्तु के रूप में देखती है। एक माँ, बहन, बेटी या साथी को अपमानित करने वाली भाषा केवल शब्द नहीं होती, बल्कि यह दर्शाती है कि समाज की मानसिकता कितनी विकृत है।
क्या पुरुष ने अपने भीतर के पुरुषत्व का दमन किया?
अगर समाज को सच में स्त्री की सही परिभाषा खोजनी है, तो सबसे पहले पुरुष को अपने भीतर के कोरे पुरुषत्व का दमन करना होगा। स्त्री को देवी बनाकर पूजने के बजाय, उसे एक स्वतंत्र इंसान मानना होगा। जब तक पुरुष अपनी भाषा, सोच और दृष्टिकोण को नहीं बदलेगा, तब तक समाज में स्त्रीवाद केवल एक दिखावा बना रहेगा।
स्त्री की सही परिभाषा वही हो सकती है, जो उसे किसी पूर्वनिर्धारित छवि में बाँधने के बजाय, उसे स्वतंत्र रूप से परिभाषित करने की अनुमति दे। पुरुषों को अपनी मानसिकता में बदलाव लाना होगा और समाज को स्त्री के संघर्ष को समझना होगा। तभी एक सशक्त और समतावादी समाज का निर्माण संभव होगा।