जाति, अर्थव्यवस्था और भेदभाव: भारत को जाति आधारित जनगणना की आवश्यकता क्यों है?

लेखक – डा. विजय श्रीवास्तव
30 अप्रैल 2025 को, भारत सरकार ने आगामी जनगणना में जाति विवरण शामिल करने का निर्णय लिया है। यह निर्णय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में हुई कैबिनेट समिति की बैठक में लिया गया। सूचना मंत्री अश्विनी वैष्णव ने घोषणा की कि यह निर्णय समाज और देश के मूल्यों और हितों के प्रति सरकार की प्रतिबद्धता को दर्शाता है। यह निर्णय ऐसे समय में आया है जब विपक्षी दल, विशेष रूप से कांग्रेस नेता राहुल गांधी, जाति जनगणना की मांग को प्रमुख मुद्दा बना रहे थे। राहुल गांधी ने इस निर्णय का स्वागत करते हुए कहा, “हमने दिखा दिया कि हम सरकार पर दबाव बना सकते हैं।”
महात्मा फुले (1827-90) जाति आधारित आर्थिक असमानताओं और जाति-आधारित अर्थव्यवस्था के पहले सैद्धांतिक विचारक थे। उन्होंने हिंदू सामाजिक व्यवस्था में सामाजिक वर्गीकरण और व्यवसायिक श्रेणीकरण की अवधारणा को सामने रखा। उन्होंने शिक्षा में असमानता और दलित समुदाय की सामाजिक परिवर्तन में भागीदारी की समस्या को उठाया। उन्होंने जातीय पहचान और व्यवसायिक भेदभाव को धर्म से जोड़ा और हिंदू वर्ण व्यवस्था की तीव्र आलोचना की।
फुले की जाति की आलोचना सामाजिक-धार्मिक और आर्थिक दोनों पहलुओं को समेटती है। उनकी यह सोच आज के आर्थिक संदर्भ में भी प्रासंगिक है, क्योंकि यह भूमि सुधार, कृषि मुद्दों और शैक्षिक भेदभाव जैसे विषयों को छूती है। जाति आधारित अर्थव्यवस्था केवल इतिहास या ग्रामीण समाज की बात नहीं है, बल्कि यह आज के वैश्वीकरण युग के शहरी समाज में भी विद्यमान है। फुले की सामाजिक बहिष्करण, जातिगत उत्पीड़न और क्रांतिकारी सुधारों की व्याख्या ने बाबा साहब भीमराव अंबेडकर के विचारों को भी प्रेरणा दी।
19वीं सदी के भारत में अनुसूचित जातियों और पिछड़े वर्गों को शिक्षा के क्षेत्र में अवसरों से वंचित किया गया था। अनुसूचित जातियों को केवल निम्न स्तर के कार्य जैसे सफाई कर्म करने के लिए मजबूर किया गया। बाबा साहब अंबेडकर ने शिक्षा और ज्ञान के क्षेत्र में समानता की आवाज़ उठाई। यह वह समय था जब भारत स्वतंत्रता संग्राम लड़ रहा था, और अंबेडकर सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ रहे थे। उन्होंने कहा, “हमारी लड़ाई न धन के लिए है, न सत्ता के लिए, यह मानव गरिमा की पुनर्प्राप्ति की स्वतंत्रता की लड़ाई है।” बाबा साहब से पहले पेरियार ई. रामास्वामी (1879) ने भी जाति आधारित आर्थिक व्यवस्था की तीव्र आलोचना की थी। उन्होंने ब्राह्मणवादी श्रम विभाजन की निंदा की और सामाजिक असमानताओं के पीछे धार्मिक संरचनाओं को जिम्मेदार ठहराया।
सामाजिक बहिष्करण और आर्थिक भेदभाव के मुद्दों पर अकरलोफ (1976), स्कोविल (1991), लाल (1988) और अंबेडकर (1936) जैसे विद्वानों के कार्यों में महत्वपूर्ण सिद्धांत मिलते हैं। शिक्षा और श्रम बाज़ार में जातिगत आर्थिक भेदभाव, किसी समुदाय या व्यक्ति को समाज में आर्थिक रूप से बाहर कर देने का उदाहरण है। हिंदू सामाजिक व्यवस्था प्रतिकूल आर्थिक व्यवस्था से जुड़ी हुई है।
शहरी श्रम बाज़ार में भी जाति का प्रभाव देखा गया है। भारत में कई अध्ययनों ने यह पाया है कि जब समान शैक्षिक योग्यता वाले दो व्यक्तियों में केवल जाति के आधार पर रोजगार में भेदभाव होता है। लाल (1983) के अनुसार, जाति व्यवस्था के प्रति वर्तमान पीढ़ी की नापसंदगी का बड़ा कारण यह है कि यह आर्थिक असमानता को वैध रूप देती है।
ग्रामीण भारत में जातीय आर्थिक संरचना के कारण हाशिए पर रहने वाले समुदायों को अधिक भेदभाव सहना पड़ता है। थॉमस ई. वीसकोप्फ के अनुसंधान में यह बात सामने आई कि “भारत में धार्मिक और जातीय समूहों के बीच आर्थिक असमानताओं से संबंधित आँकड़े व्यक्तिगत असमानताओं की तुलना में कहीं अधिक दुर्लभ हैं।”
नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन (1998) ने सामाजिक बहिष्करण की प्रक्रिया और वंचना की पारस्परिक जड़ों के माध्यम से आर्थिक भेदभाव को समझाया। किसी विशेष समूह (महिला, निम्न जाति, आदिवासी या दिव्यांग) की सदस्यता व्यक्ति की क्षमताओं के उपयोग को सीमित कर देती है।
2013 में आर. बी. भगत ने 2011 की जनगणना के आँकड़ों की मदद से अनुसूचित जाति/जनजाति परिवारों की जीवन स्थितियों पर एक अध्ययन किया। उन्होंने पाया कि आर्थिक सुधारों के दौर में यद्यपि एससी/एसटी को कुछ लाभ हुए, लेकिन वे लाभ तेज़ी से गैर-एससी/एसटी समुदायों तक पहुँचे।
2001-2011 के आर्थिक विकास के दशक में आर्थिक भेदभाव और बढ़ा। भूमि वितरण, कृषि संसाधनों और अन्य संपत्तियों तक दलितों की पहुँच सीमित रही। पिछले पचास वर्षों में विकास नीतियों के बावजूद अनुसूचित जातियों और जनजातियों के बीच विकास की खाई को कम नहीं किया जा सका। लगभग हर सामाजिक और आर्थिक सूचकांक में अनुसूचित जातियाँ आज भी सबसे अधिक वंचित हैं।
हाल ही में दिल्ली में 315 संपादकों और मीडिया कर्मियों पर किए गए एक सर्वेक्षण (CSDS) में पाया गया कि उनमें से कोई भी अनुसूचित जाति या जनजाति से नहीं था। यह इस बात का स्पष्ट संकेत है कि बौद्धिक संसाधनों और विचार निर्माण में ऊँची जातियों का वर्चस्व बना हुआ है। प्रशासनिक और सार्वजनिक संस्थानों में ऊँची जातियों की आज भी प्रमुखता है।
‘आर्थिक विकास के साथ सामाजिक न्याय’ या ‘समानता के साथ विकास’ भारत की सार्वजनिक नीति का उद्देश्य रहा है। परंतु क्या वास्तव में गरीबों को इसका लाभ मिला है, इस पर हमेशा बहस होती रही है। इन बहसों में अक्सर ऊर्ध्वाधर असमानताओं (आय आधारित) पर ध्यान दिया गया है। भारत जैसे बहुजातीय समाज में क्षैतिज असमानताओं – जैसे जातियों के बीच – पर भी ध्यान देना ज़रूरी है।
भारत के संविधान में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए विशेष कल्याणकारी प्रावधान हैं। इन लक्षित नीतियों को सही रूप से लागू करने के लिए सरकार के पास जाति आधारित आँकड़े होना आवश्यक हैं। जाति केवल एक आर्थिक अवधारणा नहीं है, बल्कि असमानता और गरीबी पर शोध करने वाले विद्वानों के लिए यह एक महत्वपूर्ण सामाजिक-सांस्कृतिक कारक है।
जैसा कि शोएब दानियाल ने लिखा – “भारत की जाति पर आधारित सकारात्मक कार्रवाई की योजनाएँ दुनिया की सबसे बड़ी हैं। आश्चर्यजनक रूप से इनमें से कई योजनाएँ बिना किसी वास्तविक आँकड़ों के बनाई गई हैं। जाति आधारित जनगणना इस कमी को दूर करने में मदद कर सकती है।